येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: |
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् || 23||
ये-जो; अपि यद्यपि; अन्य-दूसरे; देवता-देवताओं के; भक्ताः-भक्त; यजन्ते-पूजते हैं; श्रद्धया अन्विताः- श्रद्धा युक्त; ते–वे; अपि-भी; माम् मुझको; एव-केवल; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; यजन्ति-पूजा करते हैं; अविधि-पूर्वकम् त्रुटिपूर्ण ढंग से।
BG 9.23: हे कुन्ती पुत्र! जो श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे मेरी ही पूजा करते हैं। लेकिन वे यह सब अनुचित ढंग से करते हैं।
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जो भगवान की पूजा करते हैं, उनकी मनोस्थिति का वर्णन करने के पश्चात् श्रीकृष्ण अब उन लोगों की स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं जो सांसारिक सुख प्राप्त करने के लिए देवताओं की पूजा करते हैं। वे श्रद्धायुक्त भी होते हैं और वे स्वर्ग के देवताओं से अपनी प्रार्थना का फल भी प्राप्त करते हैं, किन्तु ऐसे लोगों का ज्ञान अपूर्ण होता है। वे यह अनुभव नहीं कर पाते कि स्वर्ग के देवतागण अपनी शक्तियाँ भगवान से प्राप्त करते हैं। इस प्रकार वे अप्रत्यक्ष रूप से परमात्मा के दिव्य स्वरूप की भी पूजा करते हैं। यदि कोई सरकारी अधिकारी किसी नागरिक की शिकायत का निवारण करता है तब उसे उस पर कृपा करने का श्रेय नहीं दिया जा सकता। वह केवल अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत सरकार द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करता है। इसी प्रकार की शक्तियाँ देवताओं को भगवान से प्राप्त होती हैं। इस प्रकार से जो सर्वोच्च ज्ञान से युक्त हैं वे अप्रत्यक्ष मार्ग का अनुसरण नहीं करते। वे भगवान को समस्त शक्तियों का स्त्रोत मानकर पूजा करते हैं। सर्वात्मा भगवान को अर्पित की गयी ऐसी पूजा स्वतः समस्त सृष्टि को संतुष्ट करती है।
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वाहणमच्युतेज्या।।
(श्रीमद्भागवतम्-4.31.14)
"जब किसी वृक्ष की जड़ को पानी दिया जाता है तब उसके तनों, शाखाओं, टहनियों, पत्तियों और फूलों का भी पोषण होता है। जब हम अपने मुख से अन्न का सेवन करते हैं तब यह हमारी प्राण शक्ति और इन्द्रियों को स्वतः पोषित करता है। इसी प्रकार से जब सर्वात्मा भगवान की पूजा की जाती है तब देवता सहित उनके सभी स्वाशों की भी पूजा हो जाती है।" यदि हम वृक्ष की जड़ों की उपेक्षा कर उनकी पत्तियों पर पानी डालते हैं तब वृक्ष सूख जाता है। इस प्रकार देवताओं को अर्पित पूजा निश्चित रूप से भगवान तक पहुँच तो जाती है लेकिन ऐसे भक्तों को आध्यात्मिक लाभ नहीं मिलता। इसका विस्तृत विवरण अगले श्लोक में है।